Thursday, October 15, 2009

जातीवाद पर हमारा दोहरा रवैया

पिछले करीब चालीस साल से भारत में सरकारें इस बात को आधिकारिक तौर पर स्वीकारने से बचती आई हैं कि देश में जाति प्रथा का अस्तित्व है या नहीं। वर्ष 1965 से भारत ने नस्लीय आधार पर भेदभाव के उन्मूलन के लिए गठित संयुक्त राष्ट्र संघ की समिति की बैठकों में विरोधाभासी रवैया अपना रखा है। वह एक तरफ स्वीकार करता है कि जातिवाद के नाम पर भेदभाव मानवाधिकारों के उल्लंघन के समान है।



वहीं सभी प्रकार के नस्लीय भेदभाव के उन्मूलन पर संयुक्त राष्ट्र संधि में से वह जाति शब्द को हटाना भी चाहता है। इसके बजाय भारत को स्वीकारना चाहिए कि उसके यहां जातिगत भेदभाव है और इसके खात्मे के लिए उसे अंतरराष्ट्रीय बिरादरी के साथ सहयोग करना चाहिए। इस मसले पर दोहरापन अनुचित नीति है, जिससे भारतीय सरकारों को बचना चाहिए। हमारे यहां सभी राजनीतिक दलों की चुनावी रणनीति में जाति एक अहम कारक रहा है।



भारत की कई पीढ़ियां आरक्षण नीतियों की छाया में पली हैं और आज तक किसी सरकार ने इस पर सवाल नहीं उठाया। इसलिए जातिप्रथा से फायदा उठाने वाली हमारी राजनीतिक व्यवस्था द्वारा अंतरराष्ट्रीय मंचों पर इसे एक राष्ट्रीय चिंता बताना एक प्रकार का ढोंग नहीं तो क्या है। जातिवाद अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार कानूनों का उल्लंघन है और देश के भीतर उससे लड़ने की एक मजबूत परंपरा भी रही है। सरकार दोनों ही तथ्यों से इनकार नहीं कर सकती।

Wednesday, October 14, 2009

नक्सलवाद

देश के विभिन्न राज्यों में नक्सलियों का आतंक बढता जा रहा है। बिहार और झारखंड समेत कुछ राज्यों में आहूत दो दिन के बंद के जरिए नक्सली अपनी ताकत का प्रदर्शन कर रहे हैं। पटरियां उखाड रहे हैं और हमले कर रहे हैं। नक्सलियों ने पिछले दिनों तो हद कर दी। झारखंड के सीआईडी (विशेष शाखा) के इंस्पेक्टर फ्रांसिस इंदूवार की कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (माओवादी) के नक्सलियों द्वारा बर्बरतापूर्वक सिर काटकर हत्या और उसके बाद गढचिरोली (महाराष्ट्र) जिले में 18 पुलिसकर्मियों की हत्या व एक व्यक्ति का सिर कलम करने की घटनाओं से देश भर में सदमे जैसा माहौल बन गया।

इन वारदातों से माओवादियों ने देश की जनता और सरकार को चेताया है कि वे अपनी क्रांति के लिए एक कदम और आगे बढाने को तत्पर हैं। विगत में भी नक्सली देश में ऎसे बर्बर नरसंहार कर चुके हैं। इसी साल मार्च में, एक तथाकथित जन अदालत (जो वास्तव में माओवादी कंगारू गुट है और खुद को कानून की अदालत कहता है) ने पुलिस का मुखबिर बताकर एक व्यक्ति का सिर कलम कर दिया था। जून 2008 में मुरगांव (गढचिरोली) में एक आत्म-समर्पित माओवादी का सिर भी धड से अलग कर दिया गया था। नक्सलियों ने झारखंड में अप्रेल 2007 में भी दो भाइयों की सिर काट कर हत्या कर दी थी, उन पर नक्सलियों को पुलिस का मुखबिर होने का शक था। इस तरह का अपराध करने वाले अपने कृत्य का औचित्य कुछ भी बताएं, इक्कीसवीं सदी में इस सभ्य समाज में ऎसे अपराधियों के लिए कोई जगह नहीं है। खेद की बात है कि मनुष्य इतना पतित भी हो सकता है। लेकिन इसकी महज निंदा ही पर्याप्त नहीं है। ऎसे अमानवीय कृत्य करने वालों पर मुकदमे चलने चाहिए और उन्हें सख्त से सख्त सजा मिलनी चाहिए। खेदजनक है कि सोच समझकर ठण्डे दिमाग से ऎसी हत्याएं करने वाले फरार रहते हैं।

केन्द्रीय गृहमंत्री के अनुसार बीस प्रदेशों के 223 जिलों के लगभग दो हजार थाना क्षेत्रों में नक्सली सक्रिय हैं। उन्होंने यह भी कहा है कि वर्ष 2008 में नक्सली हिंसा की 1591 वारदातें हुईं, जिनमें 721 लोग मारे गए थे। इस साल अगस्त के अन्त तक देश भर में नक्सली हिंसा में 580 लोग जान गंवा चुके हैं। नक्सलियों के निशाने पर विशेष रू प से पुलिसकर्मी रहते हैं झारखंड में पिछले साढे छह साल में इंस्पेक्टर इंदूवार 339वें पुलिसकर्मी हैं, जो नक्सली हिंसा का शिकार हुए हैं। दुख की बात यह है कि सरकार की घोर लापरवाही के कारण आज नक्सलियों का जाल देश भर में फैल गया है। चार साल पहले प्रधानमंत्री ने चेताया था कि नक्सली देश की सुरक्षा के लिए सबसे बडी चुनौती हैं। इसके बावजूद तत्कालीन गृहमंत्री शिवराज पाटिल इस संबंध में नीति तैयार करने और जरू री दिशा निर्देश देने में विफल रहे थे। अब जाकर कुछ नहीं करने और समस्या के स्वत: ही कम हो जाने की उम्मीद रखने की नीति में बदलाव आया है। अब नक्सलियों से निपटने की रणनीति बनाई जा रही है, कमियों को दूर करने और हथियारों व साजो-सामान की व्यवस्था की जा रही है। समन्वय व गुप्तचर व्यवस्था को बेहतर बनाया जा रहा है। इस तरह के कदम उठाने की जरू रत बरसों पहले ही थी और ऎसा नहीं करने की हमें बहुत बडंी कीमत चुकानी पडी है।

माओवादियों ने इस दौरान हमारी अकर्मण्यता का पूरा फायदा उठाया और अपना प्रभाव क्षेत्र बढा लिया व अपने गढों में अपनी स्थिति और मजबूत कर ली। अत्याधुनिक हथियार जुटा लिए और गुप्तचरी व संचार ढांचा मजबूत कर लिया। उनके बढे हौसलों की परिचायक हैं जल्दी-जल्दी हो रही हिंसक वारदातें और जून 2009 में माओवादियों के पोलित ब्यूरो का 'युद्ध तेज करने का फैसला'। माओवादियों ने जवाबी हमले तेज करने और अपने संघर्ष को नए इलाकों में फैलाने का भी फैसला किया है ताकि 'दुश्मन' की ताकत बंट जाए और वह उनके ठिकानों पर हमले से बाज आए। केन्द्र और विभिन्न प्रदेशों की सरकारें ने दीपावली के बाद नक्सलियों के विरूद्ध बडा अभियान छेडने का फैसला किया है, संभवत: इसी को ध्यान में रखकर माओवादियों ने उक्त फैसला किया है। इस अभियान को 'ग्रीन हंट' नाम दिया गया है। सुरक्षा पर गठित मंत्रिमंडलीय समिति की 8 अक्टूबर को हुई बैठक में समझा जाता है कि नक्सलियों के खिलाफ बडा अभियान छेडने को मंजूरी दे दी गई है। समय रहते कार्रवाई में विफल रहने की देश ने खर्चे और लोगों की जान दोनों दृष्टि से बहुत महंगी कीमत चुकाई है। वर्ष 1971 में प. बंगाल के चार, बिहार के तीन और उडीसा का एक जिला नक्सली आंदोलन की चपेट में था।

तब स्थानीय पुलिस और सीआरपीएफ ने 45 दिन तक अभियान चलाकर इस आंदोलन को खत्म किया था। नक्सलियों को घेरे से बाहर नहीं निकलने देने के लिए सेना ने बाहरी घेराबंदी की थी। स्थानीय पुलिस और सीआरपीएफ ने तलाशी अभियान चलाया था। अब 223 जिलों में नक्सलियों से निपटना है। अब तो नक्सलियों के पास अत्याधुनिक हथियार भी हैं। वे अपनी ताकत साबित कर चुके हैं। नक्सल-प्रभावित राज्यों में अगले तीन साल में विकास कार्यो पर सात खरब 30 अरब रूपए की विशाल धनराशि खर्च की जाएगी। प्रभावित इलाकों को नक्सलियों से मुक्त कर वहां सिविल प्रशासन कायम किया जाएगा और विकास कार्य प्राथमिकता से कराए जाएंगे। शुरू में छत्तीसगढ, झारखंड, उडीसा और महाराष्ट्र के 6 जिलों में यह अभियान चलेगा। इसमें सेना की मदद नहीं ली जाएगी, लेकिन जरू रत पडने पर राहत, बचाव और कार्रवाई के लिए उसे तैयार रखा जाएगा।

नक्सली भागकर दूसरे राज्यों में नहीं जा छिपें, इसके समुचित प्रबंध किए जाएंगे। इस अभियान की सफलता विभिन्न प्रदेशों की पुलिस के बीच बेहतर समन्वय पर निर्भर करेगी। आम लोगों को इस अभियान में मदद के लिए आगे आना चाहिए। साथ ही पुलिस को मानवाधिकारों के उल्लंघन से बचते हुए अनुशासन के उच्च मानदंडों को अपनाना होगा। इस युद्ध में विद्रोहियों की पराजय के साथ ही दिल जीतना महत्वपूर्ण होगा।

अरूण भगत
[लेखक गुप्तचर ब्यूरो के निदेशक रहे हैं]

cheen ke prati सचेत रहना होगा

भारत आज एक निर्णायक दौर से गुजर रहा है। उसे अपनी क्षमता सिद्ध करते हुए शिखर पर भी पहुंचना है और स्वाभिमान भी बनाए रखना है। सरकार चलाना और नेतृत्व देना एक बात नहीं है। सरकार में फाइलों के, नेताओं और अघिकारियों के पेट भरे जाते हैं। उस धन को हमारे यहां धूल कहा जाता है। नेतृत्व इसे ठोकर पर रखता हुआ कफन बांधकर निकलता है। अपने संकल्प के सहारे। आज संकल्पविहीनता की स्थिति है। कोई दूरगामी निर्णय होते ही नहीं। हमारे अघिकारियों को दौरे करने और हाथ मिलाने का बडा शौक है। भले ही पीछे से कोई छुरा मार दे। पिछले साठ साल में हमने केवल पडोसियों की शत्रुता कमाई है। देश के टुकडे किए हैं।

हमारे देश में जो कुछ हो रहा है, धर्म और जाति के नाम पर देश खण्ड-खण्ड हो रहा है, देश के भीतर विषाक्त वातावरण फैल रहा है। जनता में जितनी त्राहि-त्राहि मच रही है, पडोसी देश जिस प्रकार मित्रता भुलाकर शत्रु बनते जा रहे हैं, निर्णय लेने के बजाए गम्भीर से गम्भीर मुददों को टाला जा रहा है, देश में अनिर्णय की स्थिति बढती जा रही है, इन सबका एक ही कारण है - देश में कोई नेता नहीं है। किसी भी पार्टी ने देश को नेता नहीं दिया। सबकी नेतागिरी अपनी-अपनी पार्टी तक सिमटी हुई है। चाहे लालकृष्ण आडवाणी हो या सोनिया गांधी। ऎसे ही हमारे राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री हो गए हैं। इनके आह्वान पर देशवासी किसी मुददे पर कोई पहल नहीं कर सकते। आज जनप्रतिनिघि स्वयं कार्यपालिका पर अघिक निर्भर करते हैं। कार्यपालिका टालमटोल करने के लिए जग प्रसिद्ध है। कुर्सी और नेतृत्व में अन्तर होता है। नेता सभी दलों से ऊपर होता है। उसके समक्ष केवल राष्ट्रहित होता है। इसी के लिए वह जीता है, मरता है। मैंने राहुल गांधी से भी यही कहा था कि उन्हें देश को नेतृत्व देना चाहिए। कांग्रेस को नहीं। कांग्रेस उनके लिए सीढी का कार्य करे, तब कुछ बात बनेगी। वरना उनके साथ भी कांग्रेस का वही सम्बन्ध रहेगा जो पिछली पीढियों के साथ रह चुका है।

देश का दुर्भाग्य है कि विदेश सेवा के अघिकारी केवल यही सपना देखते रहते हैं कि उन्हें कहां का राजदूत बनाया जा रहा है। उन्हें देशहित में तपस्या करने की तैयारी दिखानी चाहिए। इन दिनों चीन और पाकिस्तान दोनों ही हमारे सामने खडे दिखाई दे रहे हैं। दोनों ने ही आजादी के बाद से अब तक समय-समय पर हमारा दोहन ही किया है, हम मौन बने बैठे हैं। क्या मार्गदर्शन किया विदेश विभाग ने। वह इसी बात से प्रसन्न है कि पाकिस्तान से हमारे रेल और बस मार्ग जुड गए। कश्मीर के जरिए व्यापार के रास्ते खुल गए। चीन से हमारा व्यापार सन् 2010 तक 30 अरब अमरीकी डॉलर हो जाएगा। साथ में भले हमारी 30 हजार बीघा जमीन दबा ले। कोई नेता देश के प्रति संकल्पवान ही दिखाई नहीं देता। ढुलमुल नीतियां चल रही हैं। शत्रुता को भी झेल रहे हैं। वार्ताएं भी जारी हैं। एक भी नेता ने स्पष्ट नहीं किया वह देश के हित में क्या करना चाहता है, जिसमें सभी देशवासी सहयोग करें। बकरी रोए जान को, खटीक रोए खाल को। सबसे दयनीय स्थिति यह है कि हम रोज यह जानकारियां दे रहे हैं कि पाकिस्तान और चीन क्या कर रहा है, किन्तु देशवासियों को नहीं पता कि भारत क्या कर रहा है।

पिछले साठ साल में भारत की विदेश नीति के कारण आज सभी पडोसी देश शत्रु बन गए। शत्रु ही क्यों लगभग सभी चीन के साथ मित्रता का जामा पहन चुके हैं। आज चीन के पास भारत में प्रवेश के लिए भले ही एकमात्र पाकिस्तान हो, आने वाले समय में यह सभी पडोसी देश चीन के लिए भारत प्रवेश का मार्ग बन जाएंगे। क्या हम इसे उपलब्घि मान सकते हैं। इसको देखकर लग रहा है कि सरकार के निर्णयों की प्रतीक्षा किए बिना ही देशवासियों को कुछ निर्णय ले लेने चाहिए। देश की सम्प्रभुता के हित में। आज चीन ने जो कुछ हमारे साथ किया है, वह 1962 की ही पुनरावृत्ति है। सुरक्षा परिषद की सदस्यता के मुद्दे पर भी सबसे बडा विरोध चीन ही कर रहा है। एक धोखा पं. नेहरू खा चुके हैं फिर हम छाछ को फू ंककर क्यों नहीं पी रहे हम जानते हैं कि वहां निर्णय लिए जाते हैं, हमारे यहां टाले जाते हैं। अत: हमें भी तुरंत प्रभाव से चीनी उत्पादों का बहिष्कार कर देना चाहिए। किसी 'स्वदेशी अपनाओ' या 'भारत छोडो' नारे की आवश्यकता नहीं है। चीनी नागरिकों को भारत में प्रवेश करने से रोक देना चाहिए। चीनी सहयोग से चलने वाले उद्योगों को भी बन्द कर देने के लिए दबाव डालना चाहिए। यह तब तक जारी रहना चाहिए जब तक चीन हमारी जमीन छोडकर वापस न लौट जाए।

गुलाब कोठारी